बढ़ते अपराध, घटती सुरक्षा
आम बोलचाल की भाषा में हम जिसे विकास कहते हैं, वह दरअसल, दोधारी तलवार है। एक तरफ तो यह औद्योगिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक उन्नति के रास्ते के अवरोधों पर प्रहार करके समृद्धि, सम्पन्नता और प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती है, वहीं दूसरी तरफ इस तथाकथित औद्योगिक विकास के कारण जो महानगरीय संस्कृति विकसित होती है, उसके कारण मानवीय मूल्यों में कमी और आपराधिक प्रवृत्तियों में बढ़ोत्तरी होती है।
वास्तव में देखा जाए तो ये अपराध जानबूझकर पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा नहीं बढ़ाए जाते, किन्तु ये अप्रत्यक्ष रूप से इससे प्रेरित होते रहते हैं। जैसे-जैसे उद्योग-धंधे और व्यापार-व्यवसाय से समाज में संपन्नता बढ़ने लगती है, वैसे-वैसे समाज का वह तबका, जो न मेहनत करना चाहता है, न ही संतुष्ट रहता है, गलत तरीकों से धन कमाने में संलग्न हो जाता है। ऐसे लोग मेहनत और ईमानदारी से नहीं, वरन् गलत तरीकों से शीघ्र ही अमीर बनने के सपने देखने लग जाते हैं। इसी तरह के लोग गिरोह बनाकर मजबूर तथा गरीब भटके हुए युवाओं को शराब, शबाब और कबाब के जाल में फंसाकर उनका अपने फायदे के लिए उपयोग करते हैं।
आज हमारे समाज में बलात्कार, हत्या, फिरौती, लूटपाट और कालेधंधों का ग्रॉफ जो बढ़ रहा है, उसके परिणामस्वरूप आम लोगों की (खासकर महिलाओं की) सुरक्षा प्रभावित हो रही है। पहले महिलाएं रात में अकेले कहीं भी चली जाया करती थी, किन्तु अब तो दिन में भी उन्हें अकेले बाहर निकलने में डर लगता है। दूसरी ओर, हमारे देश की न्यायिक प्रक्रिया इतनी लचर है और उसमें इतने किन्तु, परन्तु हैं कि वकील लोग अपने मुवकिलों (अपराधियों) को जेल से बाहर लाने की कोई न कोई तरकीब निकाल ही लेते हैं।
इसके अलावा हमारी न्याय व्यवस्था में समय भी काफी लगता है और प्रकरण का फैसला आने में बरसों लग जाते हैं। यही कारण है कि अपराधियों में अब न तो पुलिस का खौफ रहा, न ही न्यायालय की चिन्ता रही। अतः वे धन के बल पर हर वह काम करने को तत्पर रहते हैं, जो उन्हें नहीं करना चाहिए। देश का आम नागरिक अपनी एवं अपने परिजनों की सुरक्षा हेतु इसलिए चिन्तित रहता है, क्योंकि न तो सभ्य लोगों का गिरोह होता है, न ही वे गलत काम करने की मानसिकता रखते हैं।